Friday, 17 March 2017

उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री की तलाश जारी....

ब्रजेश जैनअंतिम अपडेट: शुक्रवार मार्च 17, 2017 05:04 PM IST: न्यूजप्वाइंट टीवी



यूपी के लिए सीएम की तलाश जारी...

उत्तर प्रदेश की राजनीति शुरु से ही बड़ी दिलचस्प रही है, राजनीति की शुरुआत ही उत्तर प्रदेश से हुई है लेकिन इस बार समय बदल गया है, मुद्दे बदल गए हैं, मायने बदल गए हैं और चेहरे भी बदल गए हैं। लेकिन अभी भी कुछ ऐसा है जो नहीं बदला.....

हम बात कर रहे हैं विकास की, बात हो रही है भ्रष्टाचार को खत्म करने की, काले धन को देश में लाने की, बिजली-पानी और सड़कों की, स्मार्ट सिटी बनाने की लेकिन क्या कोई बात कर रहा है उन भूखे और नंगे लोगों की जिन्हें दो वक्त की रोटी और पहनने को कपड़े नहीं मिलते, प्यासे को पानी नहीं मिलता या फिर कहें कि किसान को सूखे और कर्ज से मुक्ति नहीं मिलती।

लेकिन इन सब बातों को भुला दें तो अभी फिलहाल बात हो रही है उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री की कि आखिर कौन सा चेहरा हो जो इस राज्य की जनता के बीच का हो उनकी जाति का हो जो उनकी समस्यों को समझ सके जो उनके बीच बैठ सके।

पर मैं तो इन सभी बातों से परे हूं, इन सभी बातों को अगर दरकिनार कर दिया जाएं तो पर्दे के पीछे की बात सामने आती है कि पार्टी के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में दोबारा उत्तर प्रदेश की जनता का दिल जीतना और यूपी में एक बड़े अंतर से जीत हासिल कर सरकार बनाना है।

आगे पढ़िए....भाजपा और संघ के बीच यूपी सीएम को लेकर क्या हो रही है चर्चा ?

सीएम के लिए संघ की राय अहम
संघ की राय के बगैर मुख्यमंत्री के नाम पर सहमति मिलने की कोई संभावना नहीं है। संघ यह भी चाहता है कि पिछड़े और दलित वर्ग को भी नाराज नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए संतुलन बनाने के लिए पिछड़ी और दलित वर्ग से एक-एक डिप्टी सीएम भी बनाए जा सकते हैं। कुल मिलाकर यूपी के सीएम पद के लिए फैसला 20 मार्च से पहले होने की संभावना कम ही दिख रही है।

भाजपा के पास विकल्पों का थोड़ा अभाव
यूपी में मुख्यमंत्री का नाम तय करने के लिए भाजपा नेतृत्व को कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। सूत्रों के अनुसार संघ ने सुझाव दिया कि यूपी में राजनीतिक रूप से अनुभवी व प्रशासनिक क्षमता वाले नेता को ही कमान सौंपी जानी चाहिए।

"हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र के पिछले चुनावों में बिना सीएम कैंडिडेट के उतरने और सफल होने का फॉर्मूला भाजपा नेतृत्व के जेहन में साफतौर पर दिखाई देता है, वैसे भी यूपी में पार्टी के पास विकल्पों का थोड़ा अभाव दिखाई दे रहा है।" तभी तो यूपी के सीएम का चुनाव करने के लिए पार्टी इतना समय ले रही है।

कब होगा यूपी के नए सीएम का ऐलान 
उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री का नाम शनिवार को तय हो जाएगा। इस संबंध में पार्टी के प्रदेश अध्यशक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने कहा है कि 18 मार्च को शाम पांच बजे विधायक दल की बैठक के बाद मुख्ययमंत्री के नाम का ऐलान किया जाएगा। उसके बाद 19 तारीख को शाम पांच बजे से शपथ ग्रहण समारोह होगा। प्रदेश लखनऊ में शनिवार शाम को बीजेपी के नवनिर्वाचित विधायकों की बैठक होगी, जिसमें राज्य के नए मुख्यमंत्री का नाम तय किया जाएगा।

सबसे बड़ी चुनौती है मुख्यमंत्री का चयन
उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में तीन चौथाई बहुमत से जीत हासिल करने के बाद बीजेपी के सामने फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती मुख्यमंत्री के रूप में सर्वसम्मत नेता का चयन करने की है। विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी ने मुख्यमंत्री के रूप में कोई चेहरा पेश नहीं किया था। पार्टी ने नरेंद्र मोदी की अगुवाई में ही मतदाताओं के समक्ष जाने का फैसला किया था।

कौन सा चेहरा सबसे आगे
पार्टी सूत्रों की मानें तो गृहमंत्री राजनाथ सिंह (पूर्व सीएम उत्तर प्रदेश) और मंत्री मनोज सिन्हा, आरएसएस के केंद्रीय संगठन महामंत्री राम लाल इसके अलावा कानपुर से विधायक सतीश महाना, दिनेश शर्मा और सुरेश खन्ना सीएम बनने की दौड़ में शामिल हैं।

आइए जानते हैं इन दावेदारों के मजबूत और कमजोर पक्ष के बारे में :-


राजनाथ सिंह (अनुभवी नेता)
गृहमंत्री राजनाथ सिंह का अनुभव बहुत ही महत्वपूर्ण माना जा रहा है, मालूम हो कि राजनाथ सिंह इससे पहले यूपी के सीएम रह चुके हैं और उन्हें यहाँ कि सत्ता चलने का काफी गहरा अनुभव भी है। इसीलिए संघ राजनाथ सिंह के नाम को यूपी के सीएम के लिए अपनी पहली पसंद मान रहा है।

मनोज सिन्हा (मोदी सरकार के कैबिनेट मंत्री)
गृहमंत्री राजनाथ सिंह के करीबी माने जाते हैं और पूर्वांचल से आते हैं। पूर्वांचल पर पार्टी का सबसे ज्यादा फोकस रहा है। खुद पीएम मोदी पूर्वांचल में जीत को पार्टी के लिए सत्ता की चाबी मानते हैं। वैसे रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा के काम की तारीफ पीएम मोदी भी खासी करते रहे हैं।

लंबे समय से बीजेपी से जुड़े रहे हैं, 1996, 1999 और 2014 में लोकसभा सांसद के रूप में चुनाव जीत चुके हैं। इस समय पूर्वी यूपी की गाजीपुर संसदीय सीट से सांसद हैं। उनकी संसदीय सीट से विधानसभा चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों में शानदार प्रदर्शन किया है।
आईआईटी बीएचयू से सिविल इंजीनियरिंग में बीटेक और एमटेक की डिग्री हासिल की है। मोदी कैबिनेट में रेल राज्य मंत्री के तौर पर काम कर रहे हैं। पीएम मोदी के बेहद करीबी बी हैं। प्रबंधन में माहिर माने जाते हैं, भूमिहार वर्ग से आते हैं जिनकी संख्याद पूर्वी यूपी के कुछ जिलों तक ही सीमित है।

RSS के केंद्रीय संगठन महामंत्री राम लाल (संगठन के संकटमोचक)
संघ और भाजपा के बीच पुल का काम यही करते हैं। रामलाल पश्चिम यूपी के प्रचारक भी रह चुके हैं। यूपी की नस-नस से वाकिफ हैं। संघ व भाजपा इन्हें संगठन का संकटमोचक मानता है। परेशानी भरे सूबों को संभालने के लिए हमेशा मोर्चे पर लगाया जाता है। तेजतर्रार व डिलीवरी देने वाले शख्स हैं।





सतीश महाना (प्रधानमंत्री से रिश्ता काफी पुराना है)
कानपुर से विधायक का चुनाव जीते हैं। क्षेत्र में अच्छी पकड़ रखने वाले निर्विवादित नेता हैं। लगातार छह बार विधायक रहे हैं। महाना और प्रधानमंत्री का परिचय और रिश्ता काफी पुराना है। सहाना में संगठनात्मक क्षमता कूट-कूट कर भरी है। यूपी सीएम के लिए सतीश महाना का नाम चर्चाओं में है।

डॉ. दिनेश शर्मा- (पीएम और अमित शाह के करीबी)
फिलहाल लखनऊ के मेयर के अलावा बीजेपी के राष्ट्रीह उपाध्यक्ष का पद भी संभाल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का भरोसा हासिल है। ब्राह्मण समाज से आते हैं चूंकि केंद्र में प्रधानमंत्री के रूप में ओबीसी वर्ग के नरेंद्र मोदी मुखिया हैं, ऐसे में इस बात की चर्चा है कि सवर्ण वर्ग से
किसी को यूपी का सीएम बनाया जा सकता है। डॉ. दिनेश शर्मा इस लिहाज से फिट बैठते हैं. सरल स्वनभाव के कारण हर किसी के लिए स्वीकार्य हो सकते हैं। 

सुरेश खन्ना (आठवीं बार विधायक चुने गए हैं)
यूपी की शाहजहांपुर सीट से आठ बार विधानसभा चुनाव जीते हैं, इस बार भी सपा प्रत्याशी को हराकर विधायक बने हैं। छात्र जीवन से ही राजनीति में सक्रिय रहे हैं, कल्याण सिंह के नेतृत्वन में यूपी में बनी बीजेपी सरकार में मंत्री रह चुके हैं। जमीनी नेता की छवि है, यही कारण है कि करीब तीन दशक से मुस्लिम बहुत सीट से विधायक चुने जाते रहे हैं। 

अगर कुछ देर के लिए इन सभी चेहरों को दरकिनार कर दिया जाए तो कहीं न कहीं संघ और बीजेपी के लिए यह तय कर पाना एक बड़ी चुनौती होगी कि यूपी जैसे राज्य को विकास की राह पर आगे बढ़ाने में कौन सा ऐसा चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उम्मीदों पर खरा उतरेगा ??



Wednesday, 15 March 2017

आखिरकार कब तक उठते रहेंगे चुनावी नतीजों पर सवाल ? सिर्फ एक ही जवाब....

ब्रजेश जैनअंतिम अपडेट: बुधवार मार्च 15, 2017 04:58 PM IST: न्यूजप्वाइंट टीवी


पांच राज्यों के नतीजे आने के बाद ईवीएम पर एक बार फिर विवाद खड़ा हो गया है, भारत में पहली बार ऐसा नहीं हुआ है। इसके पहले भी कई देशों में ईवीएम मशीन पर ऊंगलियाँ उठ चुकीं हैं। सिर्फ भारत ही नहीं विदेशों में भी ईवीएम को लेकर कई विवाद जुड़े हैं। कई देशों ने तो ईवीएम के चलते चुनावों पर सवाल खड़े होने के बाद ईवीएम के इस्तेमाल पर ही रोक लगा दी।
                     
वहीं कुछ देशों ने चुनावों को विवादों से दूर रखने के लिए अभी तक ईवीएम का इस्तेमाल ही नहीं किया है। देश में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) वर्ष 2009 में लोकसभा चुनावों के बाद पहली बार विवादों में आई थी। चुनावों के नतीजे सामने आते ही वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और सुब्रमण्यम स्वामी ने ईवीएम के जरिए चुनावों में धांधली का आरोप लगाया था।


केजरीवाल ने उठाए पंजाब चुनाव परिणामों पर सवाल
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आरोप लगाया कि पंजाब में आम आदमी पार्टी के खराब प्रदर्शन के पीछे की वजह ईवीएम में गड़बड़ी है। केजरीवाल ने कहा कि आपके खाते में आने वाले लगभग 20 से 25 फीसदी वोट अकाली-भाजपा गठबंधन को चले गए हैं। केजरीवाल ने कहा कि आम आदमी पार्टी को महज 20 सीटें मिलना समझ से परे  है और यह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की विश्वसनीयता पर एक बड़ा सवाल है।

बीएमसी चुनाव में भी उठ चुके हैं ईवीएम पर सवाल
एक रिपोर्ट के मुताबिक मतदाताओं ने बसपा के प्रत्याशी को वोट दिया था लेकिन वो मत भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में चले गए। दरअसल यह सवाल इसलिए भी लाजमी है क्योंकि हाल ही में बीएमसी चुनाव में एक ऐसा ही मामला सामने आया था जब एक निर्दलीय प्रत्याशी श्रीकांत शिरसत ने राज्य निर्वाचन आयोग से बीएमसी चुनाव के नतीजों पर सवाल उठाए थे। उम्मीदवार का कहना था कि उसने और उसके परिजनों द्वारा खुद के लिए वोट करने के बावजूद उन्हें शून्य वोट मिला। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है इससे साफ प्रतीत होता है कि ईवीएम मशीन से कुछ तो छेड़छाड़ की गई होगी। वार्ड नंबर 164 से चुनाव लड़े निर्दलीय प्रत्याशी श्रीकांत शिरसत ने निर्वाचन आयोग से इस मामले की शिकायत भी की थी। अपनी शिकायत में उन्होंने कहा था कि उनके वार्ड से अन्य उम्मीदवार वोटों की गिनती में गड़बड़ी हुई है।


मायावती का भी ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप
ये दूसरा मौका है जब 11 मार्च यूपी विधानसभा चुनावों के नतीजे सामने आने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने ईवीएम पर के साथ छेड़छाड़ का करने का आरोप लगाया है। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और लालू प्रसाद यादव भी मायावती के आरोपों के साथ सुर से सुर मिला रहे हैं।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के चौंकाने वाले नतीजों पर बसपा प्रमुख मायावती ने सवाल खड़े करते हुए कहा कि मुस्लिम बहुल इलाकों में जिस तरह से परिणाम सामने आए हैं उससे इस बात की आशंका है कि ईवीएम में गड़बड़ी की गई थी। उनका कहना है कि किसी भी बटन पर वोट देने से वोट भाजपा को मिल रहे थे।

पहला मौका था जब ईवीएम विवादों में आई
देश में ये पहला मौका था जब ईवीएम विवादों में आई थी,  दूसरी बार गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान सुब्रमण्यम स्वामी ने कांग्रेस पर ईवीएम के साथ छेड़छाड़ करने के आरोप लगाए थे। वैसे तो चुनावों के दौरान भाजपा गुजरात में पहले नम्बर की पार्टी बनी थी लेकिन स्वामी का कहना था कि अगर कांग्रेस पार्टी ने ईवीएम के साथ छेड़छाड़ नहीं की होती तो भाजपा को गुजरात में 35 सीट और मिल जातीं।


स्वामी अपनी शिकायत को लेकर पहुंचे थे सुप्रीम कोर्ट
इस दौरान सुब्रमण्यम स्वामी अपनी शिकायत को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी चले गए, ईवीएम के विवादों में आते ही एक और व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर दी। कुछ समय बाद कोर्ट ने भी चुनाव आयोग को निर्देश जारी कर दिए गए कि ईवीएम पर मतदाताओं का भरोसा बनाए रखने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं। इसके बाद चुनाव आयोग ने फोटो वोटर स्लिप तकनीक का प्रयोग करने की बात कही लेकिन ये अलग बात है कि आयोग इस पर पूरी तरह से अभी तक अमल नहीं कर पाया है। इस चुनाव में भी ग्रामीण क्षेत्र को पूरी तरह से छोड़ते हुए शहर की भी सिर्फ कुछ ही सीट पर फोटो वोटर स्लिप तकनीक का इस्तेमाल किया गया।


विदेशों में ईवीएम मशीन बैन
अगर बात विदेशों की करें तो इंग्लैंड और फ्रांस ने तो अपने यहां ईवीएम का इस्तेमाल ही नहीं किया। ईवीएम में पारदर्शिता न होने का आरोप लगाते हुए जर्मनी में बैन कर दी गई। नीदरलैण्ड ने भी जर्मनी के कदम पर चलते हुए ईवीएम बैन कर दी। ईवीएम के नतीजों को आसानी से बदला जा सकता है, ये आरोप लगाते हुए इटली ने भी ईवीएम को चुनाव प्रक्रिया से हटा दिया। आयरलैण्ड ने तो ईवीएम को संवैधानिक चुनावों के लिए बड़ा खतरा बताते हुए बैन भी कर दिया। बिना पेपर ट्रेल के यूएस के कैलिफोर्निया सहित दूसरे राज्यों ने ईवीएम का इस्तेमाल करने से मना कर दिया था।


इन सभी बातों से सिर्फ एक ही जवाब सामने निकलकर आता है कि विदेशों के साथ-साथ हमारे देश में भी राजनैतिक दलों का ईवीएम मशीन से विश्वास डगमगाता हुआ दिखाई रहा है। अब इस विश्वास को कायम रखना चुनाव आयोग के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा।